Saturday, April 29, 2017

नारायण अवतार भगवान

|| नारायण अवतार भगवान
                श्री परशुराम जी महाराज की
                                संक्षिप्त जीवनकथा ||

भगवान नारायण के 6वें अवतार, भगवान श्री परशुराम जी महाराज त्रेतायुग (रामायण काल) के एक विद्वान व दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण श्रेष्ठ ऋषि थे ।

#जन्म :- वैदिक वृत्तान्तों के अनुसार भगवान श्री परशुराम जी महाराज का जन्म "ब्राह्मण महर्षि भृगुश्रेष्ठ जमदग्नि" द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप "पत्नी रेणुका" के गर्भ से, वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीय को हुआ था । वे भगवान नारायण के आवेशावतार थे । वे "ब्राह्मण कुल" के "भार्गव गोत्र" की सबसे आज्ञाकारी संतानों में से एक थे, जो सदैव अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करते थे । वे सदैव बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे । उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवान्त बनाये रखा । वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु-पक्षियों, वृक्षों, फल-फूल आदि समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे । उनका कहना था कि - "राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है ना कि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना ।" उन्हें "भार्गव" के नाम से भी जाना जाता है ।

#नामकरण :- पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिव जी द्वारा वरदान स्वरूप प्रदत्त "परशु" धारण किए रहने के कारण "परशुराम" कहलाये ।

#शिक्षा :- भगवान श्री परशुराम जी महाराज की आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचिक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचिक से "सारंग" नामक "दिव्य वैष्णव धनुष" और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी "वैष्णव मंत्र" प्राप्त हुआ । तदन्तर "कैलाश गिरीश्रृंग" पर स्थित भगवान शंकर जी के आश्रम में विघा प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र "विघुदभि नामक परशु" प्राप्त किया । भगवान शिव जी से उन्हें "श्री कृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्त्रोत एवं मंत्र कल्पतरू" भी प्राप्त हुए । भगवान श्री परशुराम जी महाराज द्वारा चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न होकर भगवान नारायण ने उन्हें त्रेतायुग में "राम अवतार" होने पर तेजोरहण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वरदान दिया । भगवान श्री परशुराम जी महाराज ने अधिकांश विघा अपने बाल्यकाल में, अपनी माता की शिक्षाओं से ही सीख ली थी ।

#कर्ण को श्राप :- कर्ण को ज्ञात नहीं था कि वो जन्म से एक क्षत्रिय है । वह स्वयं को एक शूद्र समझता रहा, लेकिन उसका सामर्थ्य छुपा न रह सका । जब भगवान श्री परशुराम जी महाराज को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होनें कर्ण को श्राप दिया कि - "उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान, उसके किसी काम नहीं आयेगा, जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी ।" इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने-सामने होते हैं, तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान ध्यान में ही नहीं रहा ।

#भूमिका :- उन्होनें सैन्य शिक्षा केवल "ब्राह्मणों" को ही थी, परंतु अपवाद स्वरूप उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविघा प्रदान की थी । उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचरात्वारिंशनाम् स्त्रोत" भी लिखा । इच्छित फल प्रदाता परशुराम गायत्री है - "ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात् !" वे पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे । वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से "21 बार" संहार किया था । वे धरती पर "वैदिक संस्कृति" का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे । शास्त्रों में वर्णित है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गए हैं । वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे । यहाँ तक कि कई खूंखार वनैले जानवर उनके स्पर्श मात्र से ही मित्र बन जाते थे ।

#कलियुग में भगवान श्री परशुराम जी महाराज की भूमिका :- "कल्कि पुराण" के अनुसार भगवान श्री परशुराम जी महाराज भगवान नारायण के 10वें अवतार "कल्कि" के गुरू होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे । वे ही कलियुग में "भगवान कल्कि" को भगवान शिव जी की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिए कहेंगे ।

नोट :- मित्रों ! भगवान श्री परशुराम जी महाराज की इस संक्षिप्त कथा को मैंने काफी मेहनत से लिखा है । अत: कृपया इसे अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करें ।

🙏 धन्यवाद 🙏

🚩जय श्री परशुराम जी महाराज🚩

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