Tuesday, May 23, 2017

एक गाँव में यज्ञ हो रहा है, और गाँव का राजा, एक बकरे को चढ़ा रहा है। बुद्ध गाँव से गुज़रे हैं, वो वहाँ पहुँच गए। और उन्होंने उस राजा को कहा कि, “ये क्या कर रहे हैं? इस बकरे को चढ़ा रहे हैं, किसलिए?” तो उसने कहा कि, “इसके चढ़ाने से बड़ा पुण्य होता है।” तो बुद्ध ने कहा, “मुझे चढ़ा दो, तो और भी ज़्यादा पुण्य होगा।” वो राजा थोड़ा डरा। बकरे को चढ़ाने में चढ़ाने में कोई हर्ज़ा नहीं, लेकिन बुद्ध को चढ़ाना! उसके भी हाथ-पैर कँपे। और बुद्ध ने कहा कि, “अगर सच में ही कोई लाभ करना हो तो अपने को चढ़ा दो। बकरा चढ़ाने से क्या होगा?” उस राजा ने कहा, “न, बकरे का कोई नुकसान नहीं है, स्वर्ग चला जाएगा।” बुद्ध ने कहा, “ये बहुत ही अच्छा है, मैं स्वर्ग की तलाश कर रहा हूँ, तुम मुझे चढ़ा दो, तुम मुझे स्वर्ग भेज दो। और तुम अपने माता-पिता को क्यों नहीं भेजते स्वर्ग, और ख़ुद को क्यों रोके हुए हो? जब स्वर्ग जाने की ऐसी सरल, तुम्हें सुगम तरकीब मिल गई है, तो काट लो गर्दन। बकरे को बेचारे को क्यों भेज रहे हो, जो शायद जाना भी न चाहता हो स्वर्ग? बकरे को ख़ुद ही चुनने दो कहाँ उसे जाना है।” उस राजा को समझ आई। उसे बुद्ध की बात ख़्याल में पड़ी। ये बडी सचोट बात थी। आदमी ने सब चढ़ाया है... धन चढ़ाया, फूल चढ़ाए। फूल भी तुम्हारे नहीं... वो परमात्मा के हैं, वृक्षों पे चढ़े ही हुए थे। वृक्षों पर परमात्मा के चरणों में ही चढ़े थे। वृक्षों के ऊपर से उनको परमात्मा की यात्रा हो ही रही थी। वहीं तो जा रही थी वह सुगन्ध, और कहाँ जाती? तुमने उनको वृक्षों से तोड़के मुर्दा कर लिया और फिर मुर्दा फूलों को जाके मन्दिर में चढ़ा आए। और समझे कि बड़ा काम कर आए हो। कभी धूप-दीप जलाए, कि कभी जानवर चढ़ाए, कि कभी आदमी भी चढ़ा दिए! अपने को कब चढ़ाओगे? और जो अपने को चढ़ाता है, वही उसे पाता है।

एक गाँव में यज्ञ हो रहा है, और गाँव का राजा, एक बकरे को चढ़ा रहा है। बुद्ध गाँव से गुज़रे हैं, वो वहाँ पहुँच गए। और उन्होंने उस राजा को कहा कि, “ये क्या कर रहे हैं? इस बकरे को चढ़ा रहे हैं, किसलिए?”
तो उसने कहा कि, “इसके चढ़ाने से बड़ा पुण्य होता है।” तो बुद्ध ने कहा, “मुझे चढ़ा दो, तो और भी ज़्यादा पुण्य होगा।” वो राजा थोड़ा डरा। बकरे को चढ़ाने में चढ़ाने में कोई हर्ज़ा नहीं, लेकिन बुद्ध को चढ़ाना! उसके भी हाथ-पैर कँपे। और बुद्ध ने कहा कि, “अगर सच में ही कोई लाभ करना हो तो अपने को चढ़ा दो। बकरा चढ़ाने से क्या होगा?” उस राजा ने कहा, “न, बकरे का कोई नुकसान नहीं है, स्वर्ग चला जाएगा।” बुद्ध ने कहा, “ये बहुत ही अच्छा है, मैं स्वर्ग की तलाश कर रहा हूँ, तुम मुझे चढ़ा दो, तुम मुझे स्वर्ग भेज दो। और तुम अपने माता-पिता को क्यों नहीं भेजते स्वर्ग, और ख़ुद को क्यों रोके हुए हो? जब स्वर्ग जाने की ऐसी सरल, तुम्हें सुगम तरकीब मिल गई है, तो काट लो गर्दन। बकरे को बेचारे को क्यों भेज रहे हो, जो शायद जाना भी न चाहता हो स्वर्ग? बकरे को ख़ुद ही चुनने दो कहाँ उसे जाना है।” उस राजा को समझ आई। उसे बुद्ध की बात ख़्याल में पड़ी। ये बडी सचोट बात थी। आदमी ने सब चढ़ाया है... धन चढ़ाया, फूल चढ़ाए। फूल भी तुम्हारे नहीं... वो परमात्मा के हैं, वृक्षों पे चढ़े ही हुए थे। वृक्षों पर परमात्मा के चरणों में ही चढ़े थे। वृक्षों के ऊपर से उनको परमात्मा की यात्रा हो ही रही थी। वहीं तो जा रही थी वह सुगन्ध, और कहाँ जाती? तुमने उनको वृक्षों से तोड़के मुर्दा कर लिया और फिर मुर्दा फूलों को जाके मन्दिर में चढ़ा आए। और समझे कि बड़ा काम कर आए हो। कभी धूप-दीप जलाए, कि कभी जानवर चढ़ाए, कि कभी आदमी भी चढ़ा दिए! अपने को कब चढ़ाओगे? और जो अपने को चढ़ाता है, वही उसे पाता है।

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